Defining Being

As you may know me.... I try to pen my feelings, with more honesty than with language and grammar. While reading the posts below you may experience what compelled me to write these.
While I was thinking of giving a name to my Blog; this came to me; "Nuances of Being"
Being "Me" is the best that I am at and hope that will show in the posts below

And Thanks for reading

~Nikhil




Sunday, June 28, 2020

पुरानी गली

कुछ साल पहले जब मैंने बेशकीमती चीज़ों पे कवितायें लिखी तो एक - दो जगह एक पुरानी गली का ज़िक्र किया | सोचता हूँ एक छोटी सी मुलाकात उस पुरानी गली से करवा दूँ |  मिल के बताएं कैसी लगी पुरानी गली? पर जानता हूँ की अगर आप किसी पुराने शहर से तारुफ़ रखते हैं तो ऐसी किसी गली को ज़रूर जानते होंगे | 



छज्जों से जुड़ कर खड़े हुए छज्जे , जैसे एक दूसरे के कंधे पे हाथ रख के बतियाते दोस्त हों ।
छज्जो के नीचे जुडी मकानों की कतार, मकान जो पुराने हैं ; पर कुछ नुक्कड़ वाली ऑन्टी की तरह मेकअप कर के उम्र से छोटे लगते हैं और कुछ हवेली की अम्मा की तरह बूढ़े और तजुर्बेकार | 

उन मकानों के बीच २-३ हवेलियां हैं; जो ज़्यादातर मकानों से कुछ बड़ी हैं, एक आध मंज़िल ऊँची भी | पर उनका कद उन्हें हवेली का दर्ज़ा नहीं देता | वह दर्ज़ा उन्हें देते हैं उनके नक्काशी वाले बुलंद दरवाज़े वह दरवाज़े जो जाने कितने मौसम देख चुके है पर अपना रुतबा रखने को सीधे खड़े हैं|  आखिरकार वही है जो गली की भीड़ को हवेली की दीवारों की थकावट नहीं देखने देते | 

अंदर झांके तो दीवारे और सीढ़ियां कुछ परेशान कुछ झुंझलाई लगती हैं | आख़िर पचासों साल खड़े रह कर हर आते जाते लम्हे को महसूस करना आसान नहीं होता | ऐसी ही एक हवेली से मेरी बचपन से जान पहचान रही है | उसकी छत्त से पतंगे उड़ा कर आज़ादी का एहसास और उसी के ज़ीने के पीछे वाले कमरो के अँधेरे में से निकल के मन में ठहरता डर; दोनों एहसास ताउम्र मेरे साथ रहने की कसम खा चुके हैं | 


सामने की बड़ी हवेली पता नहीं इस हवेली की जुड़वाँ है , या दोने एक दूसरे का अक्स; पर दोनों एक ही समय से इस गली में कड़ी है | शायद आपस में बहुत बातें करती होंगी, अपने बचपन के दिनों में | पर आज कल चुपचाप एक दूसरे को देखती हैं; शायद एक दूसरे की सलामती की दुआएँ मन में मांगते हुए | इन दोनों ने बीच गली में कई सदियाँ मौसम और इंसान को बदलते देखा है; शायद इस वजह से अब कुछ भी बोलते कतराती है| 

पर आज बात हवेली की नहीं है; आज तो हमें मिलना है पुरानी गली से | 

गली के दूसरे छोर पर, दो हलवाई की दुकानें हैं, बचपन से सुना है दोनों का नाम है छगन लाल हलवाई | पर बहुत बड़ा फरक है दोनों में; एक समोसे, कचोरी, पूरी, पतीसा, हलवा और न जाने क्या क्या बनता है | दूसरा दूध का काम करता है, दूध, दही लस्सी, बर्फी , पेड़ा और सब कुछ जिसका उधगम दूध से हो |  हम में से किसी को नहीं पता की असल में कौन छगनलाल है, या दोनों या कोई नहीं | दरअसल देखे तो हम ने बचपन से छगनलाल भी नहीं सुना था, बस सुना था छग्गू हलवाई; बड़े हुए तो जाना की छग्गू का थोड़ा ज्यादा इज़्ज़तवाला नाम भी है | 

अब यह पहेली की दोनों में से असली छग्गू कौन हैं माने नही रखती; दोनों अपनी अपनी कला में माहिर है | एक के बाहर कतार लगती  है सुबह सुबह दही, लस्सी के लिए तो दूसरे के बहार पूरी, सब्जी और हलवे के लिए | जाने कितने बचपन के रविवार मैंने दोनों कतारों में बिताये है; गर्मी की छुट्टियों में | पूरी वाले तरफ सुबह सुबह की पूरियों   से भरी कढ़ाई; जो बचपन में किसी तरन ताल सी बड़ी लगति थी; बड़े होते होते वह कड़ाई छोटी होती गयी | असल में न सही पर मेरी नज़रो में | उस कड़ाई के दाहिनी और खड़ा वो पूरियों का जादूगर जो एक साथ पचासो पूरिया तल के निकालता था |  दसियों साल बीते; पर वह हर सुबह वही का वही खड़ा मिलता है; कढ़ाई से पूरिया निकाल के, कतार में खड़े मुझ जैसो को इच्छा पूर्ती के वर की तरह हर दिन सैकड़ो पूरिया तल कर देता हुआ |  

उसका शरीर हमेशा पतला का पतला रहा; मानो कभी अपनी ताली हुई पूरियों को छुआ तक न हो , पर बालों के रंग और चेहरे की लकीरें उम्र का हिसाब बता देती रही | फिर भी हाथ का हुनर और काम की फुर्ती कभी भी बदली नहीं | आज  तक नहीं पता उसका नाम क्या है, अब सोचता हूँ तो लगता है वह सच्चा कर्मयोगी  है; उसे कोई फरक नहीं पड़ता की दुनिया में कोई  उसे नाम से जानता है या नहीं; बस उसे अपना कर्म दीखता है; जिसे उसने हर दिन पूरा किया है| 

गली के दूसरी ओर, चौक है, जहाँ हर शाम खोमचे वाले गुलाब जामुन, कुलचे, चाट, गर्मियों में कुल्फी; और न जाने क्या क्या नेमते ले कर खड़े होते थे |  वह से बाईंओर मुड़ो तो बड़े हरी मंदिर का दरवाज़ा नज़र आता है, और कीर्तन भी सुनाई देता है |  बड़े मंदिर में रोज़ सैकड़ो श्रद्धालु आते है और कुछ इस गली से गुज़रते हैं | यह गली, कुछ हद तक छोटी-मोटी  प्रार्थना मंदिर पहुंचने से पहले ही पूरी कर देती है| कम से कम मेरे बचपन ने तो यही मह्सूस किया है | हालाकि आप कह सकते हैं की हलवे का दूना कोई प्रार्थना नहीं होती; पर मै बचपन में ऐसी चीज़े भगवान् से मांग लेता था, और गली उन्हें माँ, पापा से मिल के पूरा भी कर देती थी | 

 इन दो छोरो के बीच कुछ कपडे की दुकाने, एक छोटी बेकरी, २ परचून वाले, एक साइकिल मरम्मत वाला (जिस को मैंने ता उम्र एक भी साइकिल ठीक करते नहीं देखा, फिर भी वोह ठीक है, चला रहा है जीवन ठीक से ), शायद यह गली का वरदान है | लोग जैसे भी हैं;अच्छे से है | 

यह पुरानी गली है | 

मेरी ममेरा भाई, घूर के मुझे देख रहा है, और बोल रहा है; गली नहीं है'; यह बाजार है; गलियां इतनी खुली नहीं होती, वह यही पला बड़ा है | जायज़ है उसे प्यार और फ़ख्र ज्यादा है गली पे | पर मैं हमेशा की तरह हँस के ढिठाई से उसे नज़रअंदाज़ करने का नाटक करते हुए आप सब से पूछता हूँ,  "कैसा लगा दोस्तों, पुरानी गली से मिल के?"