बुनकर की दुविधा
धागे उलझे उलझे से हैं
कैसे जीवन बुन पाऊंगा
दिन, सालों, युगों में भी शायद
इनको न सुलझा पाऊंगा
उलझी तारें बुन कर देखा
किनती गिरह बन जाती है
लाख बांधे, खींचे , तोड़े
पर तागों में तन जाती है
कैसे साफ़ बुना जाये अब
जीवन का सतरंगा बाना
सोच रहा बुनकर नैराश्य
कितना कठिन इन्हे सुलझाना
धागे विकट या बुनकर अक्षम
कारण जो भी बतलाऊंगा
फिर भी कैसे यह बेढब ओढ़न
अपने बच्चों को ओढ़ाउंगा
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