Some observations on changing times; hope it conveys the spirit in which it was written
अच्छी आदतों का सिखाना अलग था
सफलता का मगर पैमाना अलग था
उन तर्कों का मगर ज़माना अलग था
तब सच्चे थे अब बेवक़ूफ़ हैँ
तब अच्छे थे अब अनकूल (uncool) हैँ
ऊँचा बोलने वाले ही की जब सुनती हो दुनिया
करने वालो के वक़्त का फ़साना अलग था
सोचता है सपनों में तो आशियाना अलग था
चुग रहा रसहीन दाने कारों(cars) वाले चौक से
छत पे बेपरवाह बिखरा दाना, दाना अलग था
अब समझाओ भी तो कोई कहाँ सुनता है ?
और पहले तो , बिन बोले भी सुनाना अलग था
इतनी बदल जाएगी शायद पता था, फिर भी
दुनिया से दिल को लगाना अलग था
अच्छी आदतों का सिखाना अलग था
सफलता का मगर पैमाना अलग था
जिन के भरोसे पर हम खेलते हैं
उन तर्कों का मगर ज़माना अलग था
छत पे बेपरवाह बिखरा दाना, दाना अलग था.
ReplyDeleteWaah !
Thanks
DeleteBahut hi achi sour unchi observation jo sahi bhi hai.all blessings.
ReplyDeleteThanks Papa
DeleteGreat to know 'the seeker Nikhil' through this poem ..
ReplyDeleteThe questions raised are profound and it did touch the inner chord..
My compliments.. Hope to see more of Nikhil on the issues
Thanks for the kind words
DeleteHarsh reality depicted in softer manner, truly admirable
ReplyDeleteThanks bhai
DeleteVery nice 👍
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