Defining Being

As you may know me.... I try to pen my feelings, with more honesty than with language and grammar. While reading the posts below you may experience what compelled me to write these.
While I was thinking of giving a name to my Blog; this came to me; "Nuances of Being"
Being "Me" is the best that I am at and hope that will show in the posts below

And Thanks for reading

~Nikhil




Thursday, September 16, 2021

अलग था

 Some observations on changing times; hope it conveys the spirit in which it was written


अच्छी आदतों का सिखाना अलग था
सफलता का मगर पैमाना अलग था
जिन के भरोसे पर हम खेलते हैं 
उन तर्कों का मगर ज़माना अलग था

तब सच्चे थे अब बेवक़ूफ़ हैँ
तब अच्छे थे अब अनकूल  (uncool) हैँ
ऊँचा बोलने  वाले  ही की जब सुनती हो दुनिया
करने वालो के वक़्त का फ़साना अलग था


काल चक्र की तारों में पँख  फंसा बैठा पंछी 
सोचता है सपनों  में तो आशियाना अलग था
चुग रहा रसहीन दाने कारों(cars) वाले चौक से
छत पे बेपरवाह बिखरा दाना, दाना अलग था




अब समझाओ भी तो  कोई कहाँ सुनता है ?
और पहले तो , बिन बोले भी सुनाना अलग था
इतनी बदल जाएगी शायद पता था, फिर भी
दुनिया से दिल को लगाना अलग था 

अच्छी आदतों का सिखाना अलग था
सफलता का मगर पैमाना अलग था
जिन के भरोसे पर हम खेलते हैं
उन तर्कों का मगर ज़माना अलग था

9 comments:

  1. छत पे बेपरवाह बिखरा दाना, दाना अलग था.
    Waah !

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  2. Bahut hi achi sour unchi observation jo sahi bhi hai.all blessings.

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  3. Great to know 'the seeker Nikhil' through this poem ..

    The questions raised are profound and it did touch the inner chord..

    My compliments.. Hope to see more of Nikhil on the issues

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  4. Harsh reality depicted in softer manner, truly admirable

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