It has been a gap of many months since I posted anything. Things went so fast last few weeks that I felt they should slow down, and then I thought when things are slow, I want them to speed up, so it is not the situation it is some thing in me. And I counseled two of my very old friends.
So I wrote this Poem based on what they told me!!
पंछी अपने परों से परेशां है
कि हवा का हर झोंका उसे धमकाता है
क्यों नहीं वो रह सकता एक जगह
पेड़ की मानिंद
ज़मीन से पक्का रिश्ता बनाये हुए
बिना किसी हवा के ख़ौफ़ में
बिना किसी दाने की तलाश में
बिना रोज़ एक नयी ज़िन्दगी जिए ।
पेड़ अपनी जड़ो से शर्मिंदा है
की सदियों से उसे हिलने भी न दिया
क्यों नहीं आज़ाद जी सकता वोह
पंछी की तरह
आसमां को आशियाँ बनाये हुए
हवा में अपने पर फैलाये हुए
उबा देने वाले इस सालों पुराने जंगल से परे
हर रोज़ एक नयी ज़िन्दगी जिए ।
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