In this era of fast moving technology, smart
gadgets, readily available information and almost automatic life; at times
heart misses the beauty that can be only seen when going slow. In seventies and
eighties when the foundation of today's life was being laid, many movies talked
about the need to be slow. Especially Gulzar Sahab's "दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात दिन" or "थोड़ा है थोड़े की ज़रुरत है "
The Poem below is a
humble attempt to see where we have come from that time now that trying to
find फुर्सत के रात दिन is seen as an escapist mindset and थोड़ा है
as a reason to be ashamed of.......
Please comment; maybe I
am wrong in my assessment through this poem; but tell me if I am.
Also for all of you who from time to time want to take it slow and who really
look for those वही फुर्सत के रात दिन; बैठे रहें तस्सवुरे जाना किये हुए.........
थोड़ा है थोड़े की ज़रुरत है; ज़िन्दगी फिर भी यहाँ खूबसूरत है
ज़्यादा की चाहत ने अब तक
कितना ज़्यादा भटकाया है
जो मिला उसका भी मोल न समझा
जो न मिला उसने रुलाया है
अपने हाथ में, अपने घर में
जो भी हो लगता थोड़ा है
दूजे से आगे बढ़ने को
हर कोई घर से दौड़ा है
हम खुद तो इस में शामिल थे ही
अब अगली पीढ़ी को भी घसीट रहे
कंप्यूटर, टीवी, उनको दे कर
उनके परीक्षा-फल का भी दम पीट रहे
ज्यादा है पर और भी ज्यादा
की ज़रुरत लगती है
ख़ुशी कहा पे मिल पायेगी (यह पहेली)
दिल को ठगती है
ज़िदगी थकी हुई है पर
उस पर रंग लीपा करते है
मेरे पास है "उस "से ज़्यादा
यही खोखला दम भरते है
ज़्यादा के नीचे दबा सा जीवन
बदहाल, खोखला, बदसूरत है
कहाँ गई वोह दुनिया जहाँ
थोड़ा है ; थोड़े की ज़रुरत है
क्यों कि
ज़िन्दगी फिर भी वहाँ खूबसूरत है
No comments:
Post a Comment