I was talking with one of my friends at work, discussing a coworker who seems to be often shifting his priorities based on convenience and personal benefits. While discussing we realized that there are many who do the same... I have tried to write a short poem to sum that up ...hope you will like it....
बदलते दस्तूर
BY: निखिल डोगरा (१८ नवंबर २०१३)
बदलती दुनिया के दस्तूर बदलते जाते हैं
देखे हैं हमने अब कई इंसान बदलते हुए
ईमान बिक रहा हर हाट पे भारी छूट से
बे-ईमानों को देखा अपना ईमान बदलते हुए
पाप के छींटे नहीं हटे चहरे से तो क्या मलाल
दिखते है पापी रोज़ अपनी पहचान बदलते हुए
'गधे को बाप बना लो, गर हो दरकार' से रिवाज़ के चलते
मिलते है लोग हर दिन अपना भगवान् बदलते हुए
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Very True..
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