निखिल डोगरा
सोचता हु जब भी तुम मुझ से मिलो
तो मैं दिखूं जैसे,
ओस की बूंद सी ताज़गी लिए हुए
उगते सूरज की गुनगुनी रौशनी लिए हुए
पंछियों की चहक, फूलों सी महक
और भोर की हवा सी ठंडक भी लिए हुए
ओस की बूंद सी ताज़गी लिए हुए
उगते सूरज की गुनगुनी रौशनी लिए हुए
पंछियों की चहक, फूलों सी महक
और भोर की हवा सी ठंडक भी लिए हुए
डरता हू कंही तुम मुझे उस समय न देख लो
जब मै अमावस चाँद सा खुद में ही हू घुल रहा
आधी रात काले चोर सा, अपनी ही आँखों से छुप रहा
कुंठित, घ्रणित शराबी सा खुद पे ही लज्जित हो रहा
वोह जो मुझ से हो गया, या मुझ पे थोपा गया
उस सारे पाप का भार, झुके कन्धों पे धो रहा
जब मै अमावस चाँद सा खुद में ही हू घुल रहा
आधी रात काले चोर सा, अपनी ही आँखों से छुप रहा
कुंठित, घ्रणित शराबी सा खुद पे ही लज्जित हो रहा
वोह जो मुझ से हो गया, या मुझ पे थोपा गया
उस सारे पाप का भार, झुके कन्धों पे धो रहा
इक दर्पण में यह दो स्वरुप,
प्रतिबिम्ब यह दो, दोनों ही मेरे
छांट कर बाँट सका हू मैं जिन्हें
मुझ में ही समाये मेरे उजाले और अँधेरे
हो तुम ही वो एक प्रयोजन
की मैं स्वयं से श्रेष्ठ बनने चला हू
और उठ सकता हू हर आत्म्संदेह से जो कही मुझे घेरे
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