A Poem addressed to my younger self, I wish I had this thought when I was in my late teens or early twenties. I hope for those in that age now this may help to channel some thoughts.... And for those who are same age as I am or older, this may help reflect back on some times. Let me know through your comments if I am able to make any sense with this.
यह बाग़ है !
नाज़ुक, नज़ाकत से भरा
है रंग और खुशबू
जिस से बाग़ सारा झूमता
हवा में लहरा रहा, हो जैसे
कोई रानी महल में
सख्त, ताक़त से भरा
है तलवार सी धार लिए
जिस धार से हर छूने वाला डर रहा
सिपाही सा तैनात
रानी की हिफाज़त मैं खड़ा
मैं बीज हूँ
न रंग है, न ताक़त ही
मैल से सना हुआ
मिट्टी पे हूँ पड़ा
जैसे कोई रोज़ मज़दूर
अपने पसीने में नहा
खुद में ही तृस्कृत हो रहा
हैं फूल भी और कांटे भी
मेरी ही शरण में पल रहे
पँछी मुझ पे ही अपने
घोंसले बना कर रह रहे
थके को छाँव देता हूँ मैं
भूखे को फल भी मैं ही दे रहा
मुझे जानते जो वह समझते
सब को जीवन भी मैं दे रहा
मैं पेड़ हूँ जिस के जतन से
बाग़ सारा जी रहा
मैं बीज था
जो तृस्कृत हो, मिट्टी में समां गया
घुटन थी मुझे दबा रही, मैं घुटन को खा गया
तम , तपिश, शिशिर मिले
पर मैं सब कुछ सह गया
पर दर्द से फिर भी टूटने लगा वहां
टूट के बिखरा नहीं, मैं वहीँ डटा रहा
फिर टूटे बीज से ही
जीवन नया अंकुरित हुआ
मैं वही बीज था जो
दब के भी हारा नहीं (और आज )
मैं पेड़ हूँ जिसकी वजह से
बाग़ सारा जी रहा