Friends, after many weeks, I am posting this. Life had been busy to say the least, too busy to look around. Just back with a short story about fear. This story had been an almost forgotten experience, that I would like to share, as best as I can. for now it is in Hindi so sincere apologies to those who can not read hindi. I will try to translate this eventually and share. Please comment if you like and please share if you ever felt the same way as my story below.
डर के रूप !
बचपन की बात है | थोड़ी धुंदली सी याद है |
डर के रूप !
बचपन की बात है | थोड़ी धुंदली सी याद है |
स्कूल के बाद दोस्तों के साथ खेलने गए तो एक ने कहा, क्रिकेट छोड़ो आज आम तोड़ते हैं | फिर क्या था, ग्राउंड के पास ही पेड़ थे और हम सब भूल के पेड़ पे चढ़ना शुरू हुए |
आम जो जमीन से देखे तो पास लगते थे, पेड़ पे चढ़ते चढ़ते दूर होने लगे | मन डरा कि कहीं गिर न जाएँ | और डर लगते लगते ही सच हो गया, साथ की डाल पर चढ़ते दोस्त का संतुलन बिगड़ा और गिरते हुए दोस्ती निभाई, हमें भी साथ ले लिया |
पता नहीं और कितना नीचे गिरते और कितनी हड्डी तुडवते, के एक बड़ी सी टहनी हाथ आ गयी, और हम लटक गए | हम, यानि मैं और मेरा दोस्त |
आँख बंद किये, पेड़ की टहनी पकड़े डरे रहे और झूलते रहे , कहीं हाथ छूटा तो न जाने क्या होगा | डर था की अंदर से रुला रहा था, पर न रो रहे थे न ही कुछ बोल रहे थे, बस लटके थे, आँखें बंद किये | तभी कोई बोला, "हाथ छोड़ दो कुछ नहीं होगा |" और साथ में लटके दोस्त ने चेताया, "इसकी मत सुनो , यह खुद टांग तुड़वाये बैठा है, हमें भी अपने जैसा बना देगा |"
इतने साल से एक ही बात नहीं समझ आयी, कि आँख क्यों न खोली |
मानो घंटो लटकने के बाद, हाथ जवाब दे गए, उँगलियाँ लकड़ी हो गयी और हथेलियाँ छालों से फूलने लगी | जब हाथ ही न माने तो टहनी छूटी या छोड़ी यह कैसे कहें |
हाथ से टहनी छूटते ही चमत्कार हुआ,जमीन अपने आप पास गयी, या शायद पहले से ही ज्यादा दूर न रही होगी | आँख खोल के देखते तो शायद हाथ के छालों से बच जाते, पर डर ने आँख ही न खोलने दी पहले | डर के कई रूप होते हैं |
हाथ के छाले दर्द भी कर रहे थे और कोस भी रहे थे, और मैं हंस रहा | डर के खेल पे | डर का एक रूप नासमझी भी है, उस दिन पहली बार पता चला |
मेरा दोस्त अब भी टहनी से लटक रहा था, उसके हाथ के छाले अभी कच्चे थे, या उसका डर ज्यादा बड़ा था, मुझे नहीं पता | मैं बस पेड़ के नीचे बैठा मुस्कुरा रहा था, अपने हाथों को ताकता, और दोस्त के नीचे उतरने का इंतज़ार करता| और करता भी क्या, उसका डर उसे कहाँ मेरी सुनने देता था | डर के कई रूप होते है |
उपसंहार
आज भी कई बार डर किसी जगह पे लटका देता है, और हाथ छोड़ने की हिम्मत नहीं होती, कोई कुछ भी कहे | और यूँ ही हाथ रिसने तक झूलते रहते हैं, जमीन और भी दूर लगती है, चाहे असल में कितनी भी पास हो | दर्द जब भी हाथ छुड़वाता है तो कुछ टूटने का डर साँसे रोकता है, और फिर नासमझी पे हँसता भी है | डर के कई रूप होते है |